एक बार कैकसी अपने पुत्रों के साथ छत पर बैठी हुई थी कि तभी पुष्पांतक विमान में बड़े ठाट से चतुरङ्ग सेना सहित अपनी बहन के पुत्र वैश्रवण को जाते हुए देखा। दशानंद और भानुकर्ण के मुख पर पीड़ा के भाव देखकर कैकसी के आँखों में आंसू आ गए। विभीषण को कुबेर, दानव और नागों द्धारा सदैव चुप रहने का आदेश प्राप्त था। योजना के अनुसार विभीषण बोले - माता ! तेरी आँखों में आंसू क्यों है ? क्या किसी दुष्ट ने तुझे कोई कष्ट दिया है। माता बोली - पुत्र ! यह कुबेर तुम्हारा सौतेला भाई है। इसने मेरी बहन के पुत्र वैश्रवण को लंका में पांचवा लोकपाल बनाकर लंका में शासक नियुक्त किया है। कुबेर के सहयोग से इसने इंद्र के समान वैभव प्राप्त कर लिया है और अब यह मेरे पुत्रों को नीचा दिखता रहता है। विभीषण बोले - माता ! इनके लोकपाल बन जाने से क्या होता है ? मैं कुछ ही दिनों में इनका घमंड दूर करूँगा। अधिक क्या कहूँ तू शीघ्र ही इन शत्रुओं का अंत देखेगी। इतने में दैत्यराज सुमाली आ गये और आँखों में आंसू भरकर बोले - पुत्रों ! लंकानगरी जो कुल परंपरा से तो हमारी है किन्तु अशनिवेग ने दानवों से छीन ली है और उसने वहां निर्घात नाम के दुष्ट विद्द्याधर शासक को नियुक्त कर रखा है। तभी से हमें प्राणों से प्यारी अपनी मातृभूमि छोड़ देनी पड़ी है। यह सब सुमाली और कुबेर की योजना थी, वे दशानंद को उकसा रहे थे। वानर, नाग, दानव या हज़ारों देवगण मिलकर भी राक्षसवंशीय अशनिवेग से लंका को नहीं छीन सकते थे। आवश्यकता थी कि दशानंद अपना पराक्रम दिखाए और वही हुआ जो कुबेर, सुमाली और वैश्रवण ने योजना बनायीं थी। दशानंद बोले - बाबा ! आप दुःख न करें। आपके जितने भी शत्रु हैं, मैं उन सबका अभिमान चूर कर दूंगा तभी मैं स्वयं को आपका वंशज कहूंगा। यह सुनकर दानव कुटुम्बियों ने कहा - तू हमारे कुल का भूषण है, चिरंजीवी हो पुत्र। इस तरह दशानंद को आशीर्वाद दिया। जैसा कि लिखा जा चुका है कि दैत्यराज सुमाली दशानंद के बाबा नहीं नाना थे। जैन पदमपुराण में बाबा बताया गया है। दानवों को लंका कभी नहीं मिली थी। राक्षसों और दानवों में क्रमशः पर्वत और राई के समान अंतर था। सुमाली ने कैकसी को झूठ कहा था कि यह लंका कभी हमारे पूर्वजों की थी अतः कैकसी अपने पुत्रों को आदेश देती है कि पिताश्री की आज्ञा का पालन हो।
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