Friday, 29 September 2017

दशहरा : सत्य का बोध

दशहरा असत्य पर सत्य की विजय के रूप के में मनाया जाता है। असत्य का प्रतीक रावण की मृत्यु आज हुई। सत्य क्या है? असत्य क्या है? हमें लेखा-जोखा बनाना होगा ताकि भ्रम और मिथ्या मिट जाये। 
                श्रीरामचरितमानस में 693 पृष्ठ पर स्पष्ट लिखा है कि बाली का वध कर सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाकर रामप्रभु ने कहा - हे वानरपति सुग्रीव ! सुनो, मैं चौदह वर्ष तक गावों (बस्ती) में नहीं जाऊंगा। ग्रीष्म ऋतु बीतकर वर्षा ऋतु आगयी। अतः मैं यहाँ पास ही पर्वत पर टिका रहूँगा। 
                रामप्रभु के कहे हुए शब्दों का अर्थ स्पष्ट करना चाहूंगी। रामप्रभु के पास अपार बल एवं विद्याएं थीं। वे विवेकवान थे। अतः वे विद्याधरों का सहयोग नहीं लेना चाहते थे और स्वयं अकेले सीता की खोज के लिए निकले। उन्होंने कहा अब वर्षा ऋतु आ चुकी है। किसी को आवागमन नहीं करना चाहिए। सभी को अपने-अपने स्थान लौट जाना चाहिए। वर्षा ऋतु को जैन धर्म में चातुर्मास कहते हैं। अहिंसा धर्म के पालने वाले चार माह आवागमन नहीं करते ताकि जीवों की हिंसा न हो। श्री राम भी अहिंसा धर्म को पालने वाले थे। वे प्राणिमात्र के रक्षक थे। अतः चार माह तक वन में अकेले रह कर सीताजी के बारे जानकारी ली और ढूंढने का प्रयास किया। वह नहीं जान पाए कि उनके चारों ओर मायाजाल है जिसके सामने उनका बल और विवेक हार गया। श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक चार माह चातुर्मास माने जाते हैं। श्रीरामचरितमानस के 698 पृष्ठ पर फिर लिखा है कि (वर्षा ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं। वर्षा ऋतु बीत गयी, निर्मल शरद ऋतु आ गयी परन्तु हे तात ! सीता का कोई समाचार नहीं मिला। अतः स्पष्ट होता है कि शरद ऋतु के आजाने पर सुग्रीव अपने योद्धाओं को चारों दिशाओं में सीताजी की खोज करने भेजते हैं। पुराणों में यह वर्णन भी मिलता है कि सीताजी रावण की अशोक वाटिका में 10 माह तक रहीं थीं। 
                      संसार रावण को श्रीराम का शत्रु मानता है जिसने सीताजी का हरण किया और स्वयं सीताजी से विवाह करना चाहता था। रावण को अभिमान था अपने बल पर कि भूमिगोचरी राम उनके द्वारा जल्दी ही मारा जायेगा। और फिर सीता उसकी हो जाएगी। 
                      सत्य का बोध कराना चाहूंगी कि रावण श्री राम के सबसे बड़े भक्त थे। सीताजी के स्वयंवर में धनुष की टंकार लंका तक पहुंची जिससे सुनकर वे अति प्रसन्न हुए और उनकी जीव्हा पर सिर्फ राम का नाम था। एक क्षण भी ऐसा नहीं निकला होगा कि वे रामजी को भूले हों। 
                  एक घटना का वर्णन कर चुकी हूँ कि लंकेशपति अपनी गर्भवती पटरानी श्रीप्रभा को अकेला छोड़ इंद्र के प्रपंच के कारण पाताललोक में जा गिरे, जहाँ कई वर्षों तक उन्होंने अपार वेदना भोगी। उनकी अनुपस्थिति में लंका के दिव्यास्त्र चोरी हो गए थे। श्री प्रभा के पहले दो गर्भवती पटरानियों का हरण, बाली द्वारा लंकेशपति पर कई बार  प्राणघातक आक्रमण आदि घटनाओं के कारण लंकेशपति की वज्रमयी काया जर्जर हो चुकी थी, विद्याएं नष्ट हो चुकी थीं। वे युद्ध करने की स्थिति में नहीं थे, वे राम प्रभु के दर्शन के प्यासे थे। अपनी गर्भवती पटरानियों एवं उनके पुत्रों को पाने के लिए सब के तारणहार राम भगवान् के दर्शन हों और श्री राम उनके पास आएं। अतः मारीचि की योजना के अनुसार सीताजी का हरण कर बैठे। 
                  तीन लोक के स्वामी सीताजी के सामने हाथ जोड़ नितप्रतिदिन यही कहते - पुत्री सीता ! तुम्हारा पति तुम्हे कितना चाहता है कि तुम्हारे लिए युवा राम वन-वन भटक रहा है। वह महापराक्रमी तुम्हे खोजते हुए शीघ्र ही यहाँ आएगा और वह मेरे कष्टों को दूर करेगा। तुम्हे वचन देता है यह लंकेश, शीघ्र ही तुम्हारे पति से मिलवाऊंगा। तब तक तुम यहाँ प्रसन्नचित्त एवं सुख से रहो। 
                     यह मेरी आत्मा की आवाज है। आत्मा एवं ज्ञान प्रत्येक प्राणी की सम्पदा है। आज सभी की आत्मा में यह प्रश्न आना चाहिए कि त्रिलोकी लंकेश ने सीताजी का हरण क्यों किया ? सीता पाने की लालसा से लंकेशपति इतना विवेक खो देंगे कि अपना पूरा वंश समाप्त होते हुए देखेंगे फिर भी राम से युद्ध करेंगे ? सीताजी से भी अधिक रूपवान, गुणवान, शीलवान उनकी सहस्त्र रानियां थीं जिनके नामों का उल्लेख आगे किया जावेगा। 
                    दशहरा (दस+हारा) लंकेशपति की मृत्यु से दस दिशाएं हार गयीं या धर्म, अच्छाई, सत्य की विजय हुई ? मंथन की आवश्यकता है। 




















Thursday, 28 September 2017

असत्य पर सत्य की विजय

रामायण में वर्णित प्रसंग व घटनाओं की पूर्णता किसी एक धर्म में नहीं है। बहुत-सी घटनाओं एवं प्रसंगों का वर्णन हिन्दू पुराणों में नहीं है तो बहुत-सी घटनाओं एवं प्रसंगों का वर्णन जैन धर्म के पुराणों में नहीं है। बहुत-से पात्रों के नामों तक का उल्लेख जैन धर्म में नहीं है तो बहुत-से पात्रों के नामों का उल्लेख हिन्दू पुराणों में नहीं है। जैन पुराणों एवं हिन्दू पुराणों के अलावा बौद्ध धर्म में कुछ ऐसी घटनाओं व प्रसंगों का वर्णन मिलता है जो सत्य पर प्रकाश डालता है। तात्पर्य यही निकलता है कि रहस्यों एवं सत्य को छुपाने का प्रयास किया गया है। कुछ ऐसी घटनाएं, जिनका वर्णन तीनों धर्मों में मिलता है तो निष्कर्ष अलग-अलग है। आखिर क्यों ? हम घटना एवं प्रसंगों पर शोध करें, तो निश्चित रूप से आश्चर्यचकित कर देने वाला सत्य संसार के समक्ष आएगा। 
                       रावण को मारने के लिए श्री राम को छल से वन की ओर ले जाने वाले वे कौन-कौन थे ? यह न जानने पर हम सत्य से कोसों दूर हैं। हम यह मानने के लिए बाध्य क्यों हैं कि जो लिखा है, ऐसा ही हुआ होगा ? सभी धर्मों की रामायण की घटनाओं एवं प्रसंगों को हमें कसौटी पर उतारना होगा। मरने और मारने वाले के बारे में तो वर्णन मिलता है पर तीसरी अदृश्य शक्ति जो विनाश की योजना को अंजाम देती थी उसके छल और प्रपंच हमारे सामने आने पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होगी। श्री राम जिनकी आत्मा पवित्र व निर्मल थी, बल-विद्या के धारक, विवेकवान थे वे छल-प्रपंचों को नहीं जानते थे। सीता से विवाह, वनवास, वियोग  (सीता का वनवास) हुआ ।
                    अत्यंत बलशाली व्यक्ति को बल के साथ-साथ छल से समाप्त कर दिया जाता था। किसी राजा के साथ-साथ पूरा वंश समाप्त कर दिया जाता था ताकि सत्य को कहने वाला न बचे कि मेरे पिता, पुत्र, भाई, चाचा, ताऊ ने आखिर क्या किया जिसकी सजा पूरे वंश को मिली ? माता, पत्नी, पुत्री, बहन के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं होता था परिणाम स्त्रियों के शील भंग होते थे। आर्यखण्ड के हज़ारों राजाओं के साथ-साथ उनके वंश उजड़ गए। फिर धीरे-धीरे विदेशी शक्तियां आईं, उनके द्वारा राजा मारे गए। बल और शक्ति से युद्ध होते रहे। संसार की रक्षा करने वाले रक्षक कौन-कौन थे, भक्षक कौन-कौन थे, सही लेखा-जोखा पुराणों में नहीं है तो इतिहास में कैसे हो सकता है। 












Tuesday, 3 January 2017

इंद्र का प्रपंच

इंद्र क्रूर थे, इसके तथ्य प्रस्तुत हैं। लंकेशपति तीन लोक, जैन पदमपुराण में तीन खण्डों का वर्णन है - आर्य खंड, विद्द्याधर खंड (देवलोक), मलेच्छ खंड को जीतकर लंका में प्रवेश करते हैं। वानरवंश के शिरोमणि माहेंद्रसेन चक्रवर्ती रावण का आगमन सुन सभास्थल में पहुंचे और देवों को बुलाने के लिए शीघ्र रणभेरी बजवाई फिर राक्षसवंशीय, वानरवंशीय एवं अन्य देवगणों के बीच भीषण युद्ध हुआ। रावण ने माहेन्द्र को बंदी बना लिया। माहेन्द्र के पिता राजा सहस्त्रार मंत्रियों के साथ बड़ी नम्रता से लंका में रावण के पास पहुँचे और रावण ने भी मिष्ट वचनों से उदारतापूर्वक उसका सम्मान किया। सहस्त्रार रावण से कहने लगे - आपने इंद्र को जीत लिया अब उसे मेरे कहने से छोड़ दीजिये। महाराज हम आपके आधीन हैं, आप जैसा कहेंगे हम वैसा करेंगे। यह सुनकर रावण ने संतुष्ट हो उन सभी को कारागार से मुक्त कर दिया तथा भोजनादि कराकर इंद्र से कहा कि आज से तुम मेरे चौथे भाई हो। तुम यहीं लंका में सुख से रहो और राज्य का संचालन करो। सभी इंद्र जानते थे कि रावण के साथ युद्ध करने पर लाभ होता है। परोपकारी लंकेश क्षमा कर देते हैं और बदले में अधिक स्नेह करते हैं। लंकेश को उसकी  ही अच्छाई से कैसे हराया जाये, यह बात सभी इंद्र भली-भाँति जानते थे। 
                 माहेन्द्र ने रथनूपुर में धार्मिक उत्सव मनाया और लंकेशपति को आमंत्रित किया। रावण धार्मिक उत्सव में आनंद के साथ आते और उत्सव मानते थे। अपने चौथे भाई का आमंत्रण स्वीकार कर वे रथनूपुर पहुंचे। उत्सव में बाली की बहन श्रीप्रभा नीलांजना बनकर नृत्य कर रही थी। लंकेशपति नीलांजना पर मोहित हो गए।  नीलांजना का ऐसा रूप मानो संसार की सभी कन्याओं का रूप उनमें समां गया हो। नृत्य करती हुई नीलांजना (श्रीप्रभा) के पैर ऐसे थिरक रहे थे मानो बिजली चमक रही हो। स्वर्णमयी काया और हिरण के समान चंचल नेत्रों की दृष्टि लंकेशपति पर पड़ती और शीघ्र काले घने बादलों के समान केशों में नयन छुप जाते। लंकेश्पति की व्याकुलता इंद्र ने देखली। उसने नृत्य करती हुई नीलांजना को अदृश्य कर दूसरी उसी रूप की नीलांजना को नृत्य के लिए भेजा, परंतु लंकेशपति इंद्र की माया को समझ गए कि यह नीलांजना दूसरी है। इंद्र अपनी योजना पर मुस्कराए और लंकेशपति से हाथ जोड़कर विनती करते हुए बोले - लंकेश ! कृपया कर मेरी पुत्री से विवाह कर लीजिये। लंकेश ने उसी उत्सव में श्रीप्रभा (नीलांजना) से विवाह कर लिया।                  इधर अंजनप्रदेश में मारुती का जन्मदिवस मनाया जा रहा था। उसी समय केसरी पर हमला इस प्रकार करवाया गया कि बाली सोचे कि यह आक्रमण रावण के द्वारा हुआ है। यह घटना बहुत बड़ी है, जिसका वर्णन किया जायेगा। बाली को ज्ञात हुआ कि रावण धार्मिक उत्सव मना रहा है। अतः क्रोधी बाली आकाशगमन करते हुए इंद्रलोक गए। इंद्र ने अपनी माया से एक देवी को आकाश में भेज। वह देवी बोली - ठहरिये किष्किंधा नरेश ! मैं तुम्हे रथनूपुर की सीमा में प्रवेश नहीं करने दूंगी, ऐसा लंकेशपति का आदेश है क्योंकि तुम्हारी बहन श्रीप्रभा से लंकेश ने विवाह कर लिया है। इस आनंद में तुम्हे आने की अनुमति नहीं है। उस देवी ने जानबूझकर बाली का क्रोध बढ़ाया। बाली ने कहा - दूर हट रावण की दूती ! तू मुझे नहीं रोक पायेगी। इधर इंद्र लंकेश से कहते हैं - लंकेशपति ! बाली को ज्ञात हो गया है कि आपने उसकी अनुपस्थिति में उसकी बहन से विवाह कर लिया है। अति क्रोधित बाली इधर ही आ रहा है। कृपयाकर आप बाहर चलकर उसे रोकिये अन्यथा उत्सव में विघ्न आएगा, जो उचित नहीं होगा। लंकेशपति बाली को समझाने हेतु बाहर आये व नम्रतापूर्वक बोले - ठहरो बाली ! मैं तुम्हे सब कुछ बताता हूँ। क्रोध में अंधे बाली को कुछ सुनाई नहीं दिया। इंद्र का मायावी वज्र बाली के सिर पर लगा। बाली ने सोचा इंद्र तो मेरे पिता हैं अवश्य ही यह आक्रमण रावण का है। फिर बाली ने भी लंकेश पर तेज़ी से आक्रमण किया। माहेन्द्र ने लंकेश को समझाया - लंकेशपति ! आप इस चट्टान के पीछे छुप जाइए, अभी युद्ध करना ठीक नहीं है। बाली को मैं समझाऊंगा। लंकेशपति चट्टान के पीछे छुपे और चट्टान सहित हज़ारो मीटर नीचे पाताललोक में जा गिरे। 
                 रामचरितमानस में अंगद और रावण का संवाद लिखा है, उसके अंश जिसमें अंगद रावण पर व्यग्य करते हुए कहते हैं - एक रावण तो बाली को जीतने पाताल में गया था तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रख था।  बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बाली को दया आयी तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया। फिर एक रावण को सहस्त्रबाहु ने देखा और उसने उसे दौड़ाकर एक विशेष प्रकार के विचित्र जंतु के तरह पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलत्स्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया। 
               रावण को बल से कोई नहीं हरा सकता था, जिसके पास बल होता है, वह छल नहीं जानता। अतः इंद्र जिसको चौथा भाई कहकर लंकेशपति स्नेह एवं सम्मान देते थे, वे इंद्र की मायाजाल में फंसकर पाताललोक में जा गिरे और कई सालों तक पड़े रहे जहाँ उन्होंने अपार यातना भोगी। 
                    लंका में हाहाकार मच गया। सब इंद्रों को जीतने वाले इंद्रजीत हाथ जोड़कर सभी इंद्रों से प्रार्थना कर रहे थे कि कोई मेरे पिता का पता बता दे, मैं उसे लंका दे दूंगा। ऐसा ही भानुकर्ण अपने भाई के लिए दर-दर भटक रहे थे। वे अपने भाई का पता जानने के लिए किसी के पैर भी छूने के लिए तैयार थे। बाली भ्रमित हुए और श्रीप्रभा जीवन में फिर अपने पति से नहीं मिल सकी। श्रीप्रभा से उत्पन्न महावीर से परिचित कराउंगी। संसार में उस जैसा बल, रूप, गुण किसी में नहीं ऐसा वीर पुत्र जो लंकेशपति का था जो जीवित बच गया और अपने पिता के विनाश का चुन-चुनकर बदला लिया। श्रीप्रभा लंकेश की अंतिम पटरानी थी। इसके पहले भी लंकेश की तीन-चार गर्भवती पटरानियों का हरण हुआ जो संसार नहीं जानता। 
                  इस प्रकार इंद्र के प्रपंच से लंकेशपति का विनाश हो रहा था और माहेन्द्र ने देवराज इंद्र का पद प्राप्त कर लिया। कई वर्षों बाद माहेन्द्र ने लंकेशपति का पता बताने के लिए कैकसी के सामने शर्त रखी। हमें जानना होगा कि वह शर्त क्या थी ?