इंद्र क्रूर थे, इसके तथ्य प्रस्तुत हैं। लंकेशपति तीन लोक, जैन पदमपुराण में तीन खण्डों का वर्णन है - आर्य खंड, विद्द्याधर खंड (देवलोक), मलेच्छ खंड को जीतकर लंका में प्रवेश करते हैं। वानरवंश के शिरोमणि माहेंद्रसेन चक्रवर्ती रावण का आगमन सुन सभास्थल में पहुंचे और देवों को बुलाने के लिए शीघ्र रणभेरी बजवाई फिर राक्षसवंशीय, वानरवंशीय एवं अन्य देवगणों के बीच भीषण युद्ध हुआ। रावण ने माहेन्द्र को बंदी बना लिया। माहेन्द्र के पिता राजा सहस्त्रार मंत्रियों के साथ बड़ी नम्रता से लंका में रावण के पास पहुँचे और रावण ने भी मिष्ट वचनों से उदारतापूर्वक उसका सम्मान किया। सहस्त्रार रावण से कहने लगे - आपने इंद्र को जीत लिया अब उसे मेरे कहने से छोड़ दीजिये। महाराज हम आपके आधीन हैं, आप जैसा कहेंगे हम वैसा करेंगे। यह सुनकर रावण ने संतुष्ट हो उन सभी को कारागार से मुक्त कर दिया तथा भोजनादि कराकर इंद्र से कहा कि आज से तुम मेरे चौथे भाई हो। तुम यहीं लंका में सुख से रहो और राज्य का संचालन करो। सभी इंद्र जानते थे कि रावण के साथ युद्ध करने पर लाभ होता है। परोपकारी लंकेश क्षमा कर देते हैं और बदले में अधिक स्नेह करते हैं। लंकेश को उसकी ही अच्छाई से कैसे हराया जाये, यह बात सभी इंद्र भली-भाँति जानते थे।
माहेन्द्र ने रथनूपुर में धार्मिक उत्सव मनाया और लंकेशपति को आमंत्रित किया। रावण धार्मिक उत्सव में आनंद के साथ आते और उत्सव मानते थे। अपने चौथे भाई का आमंत्रण स्वीकार कर वे रथनूपुर पहुंचे। उत्सव में बाली की बहन श्रीप्रभा नीलांजना बनकर नृत्य कर रही थी। लंकेशपति नीलांजना पर मोहित हो गए। नीलांजना का ऐसा रूप मानो संसार की सभी कन्याओं का रूप उनमें समां गया हो। नृत्य करती हुई नीलांजना (श्रीप्रभा) के पैर ऐसे थिरक रहे थे मानो बिजली चमक रही हो। स्वर्णमयी काया और हिरण के समान चंचल नेत्रों की दृष्टि लंकेशपति पर पड़ती और शीघ्र काले घने बादलों के समान केशों में नयन छुप जाते। लंकेश्पति की व्याकुलता इंद्र ने देखली। उसने नृत्य करती हुई नीलांजना को अदृश्य कर दूसरी उसी रूप की नीलांजना को नृत्य के लिए भेजा, परंतु लंकेशपति इंद्र की माया को समझ गए कि यह नीलांजना दूसरी है। इंद्र अपनी योजना पर मुस्कराए और लंकेशपति से हाथ जोड़कर विनती करते हुए बोले - लंकेश ! कृपया कर मेरी पुत्री से विवाह कर लीजिये। लंकेश ने उसी उत्सव में श्रीप्रभा (नीलांजना) से विवाह कर लिया। इधर अंजनप्रदेश में मारुती का जन्मदिवस मनाया जा रहा था। उसी समय केसरी पर हमला इस प्रकार करवाया गया कि बाली सोचे कि यह आक्रमण रावण के द्वारा हुआ है। यह घटना बहुत बड़ी है, जिसका वर्णन किया जायेगा। बाली को ज्ञात हुआ कि रावण धार्मिक उत्सव मना रहा है। अतः क्रोधी बाली आकाशगमन करते हुए इंद्रलोक गए। इंद्र ने अपनी माया से एक देवी को आकाश में भेज। वह देवी बोली - ठहरिये किष्किंधा नरेश ! मैं तुम्हे रथनूपुर की सीमा में प्रवेश नहीं करने दूंगी, ऐसा लंकेशपति का आदेश है क्योंकि तुम्हारी बहन श्रीप्रभा से लंकेश ने विवाह कर लिया है। इस आनंद में तुम्हे आने की अनुमति नहीं है। उस देवी ने जानबूझकर बाली का क्रोध बढ़ाया। बाली ने कहा - दूर हट रावण की दूती ! तू मुझे नहीं रोक पायेगी। इधर इंद्र लंकेश से कहते हैं - लंकेशपति ! बाली को ज्ञात हो गया है कि आपने उसकी अनुपस्थिति में उसकी बहन से विवाह कर लिया है। अति क्रोधित बाली इधर ही आ रहा है। कृपयाकर आप बाहर चलकर उसे रोकिये अन्यथा उत्सव में विघ्न आएगा, जो उचित नहीं होगा। लंकेशपति बाली को समझाने हेतु बाहर आये व नम्रतापूर्वक बोले - ठहरो बाली ! मैं तुम्हे सब कुछ बताता हूँ। क्रोध में अंधे बाली को कुछ सुनाई नहीं दिया। इंद्र का मायावी वज्र बाली के सिर पर लगा। बाली ने सोचा इंद्र तो मेरे पिता हैं अवश्य ही यह आक्रमण रावण का है। फिर बाली ने भी लंकेश पर तेज़ी से आक्रमण किया। माहेन्द्र ने लंकेश को समझाया - लंकेशपति ! आप इस चट्टान के पीछे छुप जाइए, अभी युद्ध करना ठीक नहीं है। बाली को मैं समझाऊंगा। लंकेशपति चट्टान के पीछे छुपे और चट्टान सहित हज़ारो मीटर नीचे पाताललोक में जा गिरे।
रामचरितमानस में अंगद और रावण का संवाद लिखा है, उसके अंश जिसमें अंगद रावण पर व्यग्य करते हुए कहते हैं - एक रावण तो बाली को जीतने पाताल में गया था तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रख था। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बाली को दया आयी तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया। फिर एक रावण को सहस्त्रबाहु ने देखा और उसने उसे दौड़ाकर एक विशेष प्रकार के विचित्र जंतु के तरह पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलत्स्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया।
रावण को बल से कोई नहीं हरा सकता था, जिसके पास बल होता है, वह छल नहीं जानता। अतः इंद्र जिसको चौथा भाई कहकर लंकेशपति स्नेह एवं सम्मान देते थे, वे इंद्र की मायाजाल में फंसकर पाताललोक में जा गिरे और कई सालों तक पड़े रहे जहाँ उन्होंने अपार यातना भोगी।
लंका में हाहाकार मच गया। सब इंद्रों को जीतने वाले इंद्रजीत हाथ जोड़कर सभी इंद्रों से प्रार्थना कर रहे थे कि कोई मेरे पिता का पता बता दे, मैं उसे लंका दे दूंगा। ऐसा ही भानुकर्ण अपने भाई के लिए दर-दर भटक रहे थे। वे अपने भाई का पता जानने के लिए किसी के पैर भी छूने के लिए तैयार थे। बाली भ्रमित हुए और श्रीप्रभा जीवन में फिर अपने पति से नहीं मिल सकी। श्रीप्रभा से उत्पन्न महावीर से परिचित कराउंगी। संसार में उस जैसा बल, रूप, गुण किसी में नहीं ऐसा वीर पुत्र जो लंकेशपति का था जो जीवित बच गया और अपने पिता के विनाश का चुन-चुनकर बदला लिया। श्रीप्रभा लंकेश की अंतिम पटरानी थी। इसके पहले भी लंकेश की तीन-चार गर्भवती पटरानियों का हरण हुआ जो संसार नहीं जानता।
इस प्रकार इंद्र के प्रपंच से लंकेशपति का विनाश हो रहा था और माहेन्द्र ने देवराज इंद्र का पद प्राप्त कर लिया। कई वर्षों बाद माहेन्द्र ने लंकेशपति का पता बताने के लिए कैकसी के सामने शर्त रखी। हमें जानना होगा कि वह शर्त क्या थी ?
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