Sunday, 1 September 2024

धर्म और विज्ञान

 


रोमांचित कर देने वाला प्राचीन काल का विज्ञान व भूगोल

आज जिन युवाओं ने शासन द्वारा निर्धारित परीक्षा प्रतियोगिताओं को अपने अथक परिश्रम से उत्तीर्ण करके शासन-प्रशासन में अपनी जगह बनाई है, उन वैज्ञानिकों, अफसरों की बनाई योजनाओं को महत्व दिया जाता है। इसके विपरीत मैंने अपना मार्ग धर्म को अपनाया ।
              धर्म का तात्पर्य आज कर्मकांड से माना जाता है । जैसे - मंदिर जाना, मंदिर बनवाना, तीर्थ क्षेत्र की यात्रा करना, धार्मिक उत्सव, विधि-विधान, दान आदि को धर्म मानना संकुचित है । धर्म में विश्व है । पुराणों में वर्णित घटनाओं एवं प्रसंगों से प्राचीन काल में जो विज्ञान व भूगोल था, वह विश्व के सामने लाने का प्रयास है जिस पर शोध की आवश्यकता है । लगभग सभी वैज्ञानिक, खगोलविद्, चिंतक, विचारक, मनोवैज्ञानिक इसकी आवश्यकता को अनुभव करेंगे । हम अंतरिक्ष यानों को दूसरे ग्रहों, उपग्रहों पर जानकारी प्राप्त करने भेजते है, तो बहुत-सी जानकारी इन्हीं घटनाओं से प्राप्त हो जाएगी ।
            विश्व के सभी धर्मों में अतुल्य साहित्य के भंडार भरे हैं। मैंने जैन और हिन्दू धर्म के पुराणों का अध्ययन करके जो विज्ञान, भूगोल की जानकारी प्राप्त की है उसे सहजता से समझा जा सकता है । एक-दूसरे के धर्म को धकियाने की प्रवृत्ति को छोड़कर हमें उच्च विचारधारा को अपनाना चाहिए । समय-समय पर सृष्टि की रक्षा करने वाले महापुरुषों ने पृथ्वी पर जन्म लिया, जिनको संसार भगवान्, ईश्वर, अल्लाह, गाॅड, प्रभु कहता है। उन्होंने भेदभाव को छोड़कर अपने बल एवं बुद्धि से संसार के लिए कार्य किए । उनके कार्यों को भिन्न-भिन्न धर्म ज्ञानियों ने अपने हिसाब से समीक्षा कर लिखा, जिससे संसार यथार्थता से वंचित हो गया । इन भगवानों की जीवनगाथा किसी भी धर्म में पूर्ण नहीं है। अतः किसी भी घटना का निष्कर्ष निकालने के लिए सभी धर्मों का अध्ययन आवश्यक है । हमें किसी भी धर्म में वर्णित तथ्यों को नकारना नहीं चाहिए ।
                  मैं जिन घटनाओं का उल्लेख करूंगी, उनमें हनुमान के मुख में सूर्य, शनिदेव के द्वारा नक्षत्रों का भेदन, समुद्र मंथन, श्री कृष्ण जी की अंगुली पर पृथ्वी आदि की यथार्थता का वर्णन है ।
            जैन धर्म में इन घटनाओं का कहीं उल्लेख नहीं है । परंतु मेरा उद्देश्य दोनों धर्मों के प्रसंगों और घटनाओं के उत्कृष्ट विज्ञान से संसार को परिचित कराना है । जैन धर्म में तीर्थंकरों का वर्णन है, जो बल, विद्या, रूप, गुण में श्रीराम, हनुमान, श्रीकृष्ण के समान ही है। अंतर सिर्फ इतना ही है कि तीर्थंकरों के जीवन में कभी प्रतिकूलताऐं नहीं आईं। उनको कभी युद्ध नहीं करने पड़े । उनकी दिव्य ध्वनि से संसार के जीवों का कल्याण होता था। संसार की रक्षा करने के लिए श्रीराम, हनुमान, श्रीकृष्ण, शनिदेव को युद्ध करने पड़े । मैं इन घटनाओं में विज्ञान की मुहर लगवाऊंगी तो निश्चित ही विज्ञान मिथ्या मान सकता है।
                   हनुमान ने सूर्य को मुख में रख लिया । हनुमान अपने बल-विद्या से पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर  (अंतरिक्ष में) नहीं जा पाए थे और हिंदू धर्म में जो लिखा है वह भी सत्य है ।
          श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सूर्य को ढंक दिया था । सुदर्शन चक्र सूर्य को नहीं ढंक सकता है फिर भी सूर्यास्त का भ्रम उत्पन्न करने में सुदर्शन चक्र की महत्ती भूमिका थी जिससे जयद्रथ सहित सभी कौरव आनंद मनाते हुए युद्ध भूमि में आ गए और फिर सूर्य के दर्शन हुए । जयद्रथ अर्जुन के बाण से मारे गए । शनि नक्षत्र भेदन करते थे और हनुमान के ग्रहों से टकराने पर ग्रह डगमगा जाते थे । ग्रहों तक शनि, हनुमान पहुंच ही नहीं पाए थे और पुराणों में वर्णित यह घटनाऐं भी पूर्ण सत्य है । इस द्वंद्व में ही प्राचीन समय का विज्ञान एवं भूगोल है । इन घटनाओं को पूर्ण करने के लिए स्वर्गलोक का वर्णन करना चाहूँगी ।
स्वर्गलोक का वर्णन- सीताजी का हरण के जानेे पर दुखी रामचंद्रजी हाथ जोड़कर बोले - हे महान पर्वतराज ! तुम सबके रक्षक हो । मुुझे मेरी सीता के बारे में बतादो । यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि यह महान पर्वतराज ही स्वर्गलोक था जो कि भारतवर्ष के उत्तर-पूरव में था । सभी लोग उत्तर-पूर्व दिशा को शुभ मानते हैं और स्वाध्याय करने इन्हीं दिशाओं की ओर मुख करके बैठते हैंं । 24 तीर्थंकरों के जन्म के पूर्व और बाद तक 15 माह का वर्णन मिलता है । धन कुबेर अपार रत्नों की वर्षा इसी महान पर्वतराज से ही करते थे । यह जन्म भूमि इन्ही पर्वतों के पास ही है । काशी, अयोध्या, श्रीवस्ती, कौशांबी, हस्तिनापुर आदि। 
                                यह समुद्र की सतह से 10-12 हज़ार मीटर ऊँचा था। इससे आधा विजयार्ध पर्वत था, जहाँ तक सिर्फ वानरवंशी ही जा सकते थे। स्वर्गलोक के अधिपति संसार में सुख, ज्ञान व आनंद देते थे।  वे अपने बल से सृष्टि का संतुलन बनाये रखते थे। जिस स्वर्ग को विज्ञान नहीं मानता, यही स्वर्ग ही सृष्टि का संतुलन रखने वाला था। इसके अतिशय और अदभुतता का वर्णन करुँगी तो कई पुराणों की रचना हो जाएगी, इसीलिए यहाँ थोड़ा-सा वर्णन इस प्रकार है। 
                            लगभग 12 हज़ार मीटर ऊँचा आकाश को छूता हुआ यह पर्वतराज, जिसके पांच परकोटे थे। पहला धूलिसाल नामक कोट था, जो 5000 रत्नों से निर्मित था, दूसरा कोट जो तपे हुए स्वर्ण के समान लाल रंग का था, तीसरा कोट स्वर्णमयी पीत वर्ण का, चौथा कोट स्फटिक मणि के समान व चंद्रमणि के समान स्वेत वर्ण का था। सोने, चांदी, रत्नों की कई हज़ार पेडियां थी। 
                            निर्मल जल से पूरित नदियां थीं, जिसमें एक-एक हज़ार पंखुड़ियों वाले स्वर्णमयी वर्ण वाले कमल के फूल खिलते थे, उपवन थे, जिसमें सबसे पहले अशोक वृक्ष को देखकर संसारी जीवों के समस्त शोक दूर हो जाते थे।  चम्पक वृक्ष, जिसकी ज्योति दीपक के समान जगमगाती रहती थी, इसीलिए इसका नाम चम्पक पड़ा। चौथे परकोटे में कल्पवृक्षों की रचना है, कल्पवृक्षों के नाम गृहांग, भजनांग, आभूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, मयांग, ज्योतिरांग, मालांग, वादियांग तथा दीपांग इस प्रकार के कल्पवृक्ष थे। प्रत्येक परकोटे में चार-चार द्वार थे, उस प्रत्येक द्वार के ऊपर सौ-सौ रत्नमयी तोरण थे, द्वार पर अनेक रत्नमय घंटे, मोतियों की मालाएं एवं कल्पवृक्षों के पुष्पों की मालाएं लटकी रहती थीं। रत्न एवं निधियां थीं। जैन धर्म में 14 रत्न एवं नौ निधियों का वर्णन मिलता है तो हिन्दू पुराणों में भी रत्न एवं निधियों का वर्णन मिलता है।  मेरा मानना है कि यह सब इसी पर्वतराज के सबसे ऊपर पांचवे परकोटे में थी एवं नीलमणि के समान गोलाकार एक शिला थी, जिसके ऊपर रत्न का विशाल सिंहासन था, इस सिंहासन पर तीनों लोक के स्वामी अथवा स्वर्गलोक के अधिपति विराजमान होते थे। इस सिंहासन के ऊपर स्वर्णमयी तीन छत्र थे। सुदर्शन चक्र, गदा, दंड, ब्रम्हास्त्र, अग्निबाण, मेघबाण, अंधकारबाण, प्रबोधबाण आदि दिव्यास्त्र इस स्वर्गलोक के अधिपति के अधीन थे। 
                               इस स्वर्गलोक में कभी अंधकार नहीं होता था, इसका एक दिव्य सूर्य था, जो इसकी परिक्रमा लगाता था। 
                           
 
  मारुती सुमेरु में रहते थे, जो समुद्र के सतह से 3-4 हज़ार मीटर की ऊंचाई पर था। देवों ने मारुती को कार्यों में इतना उलझाया कि मारुती को असहनीय भूख जागृत हुई। देवों को ज्ञात था कि मारुती को भूख भी अधिक लगती है।  अतः भूख से व्याकुल अबोध बालक से कहा गया कि इस दिव्य फल को खाने से जीवन की क्षुधा समाप्त हो जाएगी।  बालक पर्वतराज पहुंचे। जिस प्रकार हनुमान को अणिमा ऋद्धि, महिमा ऋद्धि प्राप्त थी, जिसमें अणिमा ऋद्धि से वह अपने शरीर को परमाणु के समान छोटा बना लेते थे तथा महिमा ऋद्धि जिससे वह अपने शरीर को पर्वत के समान बड़ा बना लेते हैं। उसी प्रकार स्वर्गलोक का यह दिव्य सूर्य विद्याधारक के अनुसार छोटा-बड़ा हो जाता था। 
                       यहाँ दार्शनिक बनकर यह भाव मेरे अंतःकरण से उमड़ रहा है कि मानो दिव्य सूर्य ने अपने भगवान (हनुमान) को सम्मुख पाकर अपने को छोटा बना लिया, जिससे वह अपने भगवान् का स्पर्श प्राप्त कर सके और सूर्य देव अपने भगवान के मुख में विराजमान हो गए। बालक मारुती सूर्य के ताप को सहन नहीं कर सके और पृथ्वी पर गिरने लगे। इंद्र ने वज्र से प्रहार किया, जिससे पृथ्वी पर गिरते हुए मारुती की दिशा बदल दी गयी और मारुती किष्कुपुर राज्य में जा गिरे। इस तरह दिव्य सूर्य सूर्यरज विद्याधर को प्राप्त हुआ और संसार को प्रकाश देने वाले सूर्य देव कहलाये। 
                     इंद्र  की दुष्टता के उदाहरण सहस्त्र हैं।  श्री कृष्ण, शनिदेव ने इंद्र को कई बार दण्डित किया और उनके घमंड को चूर-चूर किया। 
                     स्वर्गलोक की दिव्यता के प्रतीक चिन्ह श्री राम, हनुमान, श्री कृष्ण और तीर्थंकरों शरीर पर मिलते हैं। तीर्थंकरों के शरीर पर पद्म, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, कलश, दंड, स्वस्तिक, चक्र, ॐ, ज्योति आदि सहस्त्र शुभ चिन्ह होते थे। रामचन्द्रजी के वक्ष पर पद्म का चिन्ह एवं इतने ही चिन्ह उनके पैरों में थे। देव-दानव उनके पैर छूने के लिए लालायित रहते थे। हनुमान के पैर में चक्र सहित कई चिन्ह थे। श्री कृष्ण जी के पैर में पद्म का चिन्ह था। यह चिन्ह उन्हीं के होते थे, जिनका सम्बन्ध स्वर्ग से होता था। 

No comments:

Post a Comment