Tuesday, 29 November 2016

कैकसी कौन ?

 रामायण के अनुसार कैकसी सुमाली की पुत्री थी तो जैन पदमपुराण के अनुसार कैकसी राजा व्योम बिंदु - रानी नंदवती की पुत्री थी। पदमपुराण में वर्णित - सुमाली के प्रीतिमति रानी से रत्नश्रवा नाम का गुणी व दयालु पुत्र हुआ। रत्नश्रवा रावण के पिता थे जिनका हिन्दू पुराणों में विश्रवा नाम है। कुबेर रावण के सौतेले भाई थे तो पदमपुराण के अनुसार कुबेर कैकसी की बहन के पुत्र थे। 
                   निष्कर्ष मेरा यह है कि कैकसी सुमाली की पुत्री थी। सुमाली ने अशनिवेग की गर्भवती पत्नी का हरण किया था, जिन्हें खोजने के लिये अशनिवेग ने विद्द्याधर निर्घात को पाताललोक भेजा जहाँ माली ने वज्र से निर्घात का ह्रदय बेध दिया, कैकसी अशनिवेग की हरण हुई गर्भवती पत्नी की पुत्री थी। कैकसी को यह ज्ञात नहीं था। कैकसी राक्षसवंश की पुत्री होने के कारण अत्यंत रूपवान एवं गुणवान थी। वह एक दिव्य कन्या थीँ, जिसके रावण-भानुकर्ण जैसे महापराक्रमी पुत्र हुए। कैकसी रत्नश्रवा से विवाह नहीं करना चाहती थीँ। रत्नश्रवा विवाहित थे और उम्र भी ज्यादा थी। कैकसी केवल १३ वर्ष की थीँ। सुमाली के कहने पर रत्नश्रवा से विवाह किया। कुबेर-सुमाली जानते थे कि दोनों राक्षसवंशीय होने के कारण संतान भी अत्यंत बलशाली होंगे जिनसे लंका का वैभव मिलेगा। कुबेर भी रत्नश्रवा के पुत्र थे किन्तु वे बलशाली नहीं थे, कारण कुबेर की माँ दानवपुत्री थी। कैकसी पुत्र के बाबा-अम्मा, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ एवं इनके पुत्र-पुत्रियों का उल्लेख पुराणों में नहीं मिलता है, जिनकी छत्र-छाया बच्चों को सुरक्षा देती है। कैकसी के पिता सुमाली, माली, माल्यवान, मामा मारीच, मायावी मय, नानी, मामी एवं सहस्त्र दानवपुत्रियाँ थीं। कैकसी के लिए इनकी आत्मा में ज़रा भी स्नेह नहीं था। कैकसी के पुत्रों का जन्म से ही विनाश आरम्भ हो चुका था। 

Sunday, 27 November 2016

हठीले कैकसी पुत्र आनंद

कैकसी पुत्र आनंद जीव दया धर्म को मानने वाले थे। कोई पशु-पक्षियों को प्रताड़ित करे, तो वे पशु-पक्षियों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते थे। अशनिवेग रावण के पूर्व लंका के स्वामी थे। रत्नश्रवा (विश्रवा) अशनिवेग के राजमहल में ब्राम्हण पद के धारक थे और उनके पुत्र कुबेर लोकपाल थे। आनंद के माता-पिता दोनों ही राक्षस वंश के थे। राक्षस वंश से अभिप्राय होता है - धर्म, स्त्री, त्रियंच जीवों की रक्षा करने वाला। 
                      लोकपाल कुबेर जानते थे की सौतेले महाबलवान भाई आनंद को उसकी ही अच्छाई से पराजित किया जा सकता है। कुबेर ने दानव, वानर, नागों से मित्रता कर उन्हें लंका का वैभव पाने का लालच दिया। उस समय ऋषि-मुनि तपस्वी थे परंतु कुबेर ने दानव, वानर, नागों के साथ मिलकर प्रपंचकारी ऋषि-मुनियों की टोली बनायीं, जो जानबूझकर बालक आनंद के सामने पशुओं को प्रताड़ित करते थे। बालक आनंद उन ऋषियों से लड़ने-झगड़ने लगते। पिता पुत्र को समझाते - पुत्र ! तुम अबोध हो, तुम्हे इनसे झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। हठीले आनंद नहीं जानते थे कि ऋषिगण प्रताड़ित पशुओं को नहीं  बल्कि उनको कर रहे हैं। कुबेर अपनी योजना पर अत्यंत प्रसन्न हुए। अब उन्होंने ऋषि-मुनियों को यज्ञ में पशुबलि की आज्ञा दी। बालक आनंद का साथ भानुकर्ण (कुम्भकर्ण) भी देते थे। यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाता, तो वे क्रोधित होकर हवनकुंड में पानी डाल देते और पशुओं को स्वतंत्र कर देते थे। ऋषि-मुनियों ने कैकसी पुत्र के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव रखा और रत्नश्रवा से कहा - तुम अपने पुत्र को रोको, वह हमारे धर्म में विघ्न न डाले और उससे अपनी भूलों के लिए क्षमा मांगने को कहो अन्यथा हम सब उसे देवलोक से बाहर निकल देंगे। पिता ने पुत्र से क्षमा मांगने को कहा। इस पर बालक आनंद बोले - पिताश्री ! आप मुझे इन दुष्ट पाखंडियों से क्षमा मांगने को कह रहे हैं। मैं इनसे क्षमा नहीं मागूंगा। यदि यह सब हिंसा करेंगे, तो मैं इन्हें रोकूंगा। सभी ऋषिगण क्रोधित होकर बोले - रत्नश्रवा ! तेरा पुत्र बहुत उदंडी है, ये दशानंद नहीं दशानन है। जिन ऋषि-मुनियों की सभी पूजा व सम्मान करते हैं, तेरा पुत्र हम सभी को दौड़ा-दौड़ाकर मारता है। संसार इसे दशानन के नाम से जानेगा। इस प्रकार ऋषि-मुनियों की प्रपंचकारी टोली ने बालक आनंद के लिए दंड निर्धारित किया और आगे भी देते रहे। कोई एक अबोध बालक के साथ इतना छल कर सकता है तो युवावस्था में उनके साथ कितना छल करेगा। उन छल-प्रपंचों को आगे लेन का मेरा प्रयास है। 

Wednesday, 23 November 2016

लंकेश का नाम रावण क्यों पड़ा ?

घटनाओं की सत्यता जानने के लिए सर्वप्रथम जानना होगा कि रावण का नाम दशानंद था। कैकसी अपने पुत्र को आनंद कहती थी। रावण नाम बाली द्वारा दशानंद के ऊपर उपसर्ग (आक्रमण ही आक्रमण) करने के बाद पड़ा। कैकसी पुत्र का जन्म हुआ, बालक खेलता हुआ यक्षों द्वारा प्रदत वह हार जिसकी हज़ारों देवता रक्षा करते थे, उस हार के पास पहुँच गया और उसने हाथ से पकड़ लिया। बालक का यह पराक्रम देखकर राक्षस वंश के योद्धा परस्पर विचार करने लगे कि हमारा खोया हुआ राज्य यह पुनः ले लेगा। उस हार में लगे हुए रत्नों में बालक खिल-खिलाता हुआ सबने देखा। पिता रत्नश्रवा ने अपने पुत्र का नाम दशानंद (दस दिशाओं में आनंद फैलाने वाला) रखा। बालक आनंद अत्यंत रूपवान थे। बालक का बल, रूप देखकर माता-पिता अत्यंत हर्षित होते थे। दशानंद का जब विनाश आरम्भ हुआ तब शत्रुओं ने अपयश फैलाने के लिए रावण, दशानन, दसग्रीव, दसमुख आदि नामों से उन्हें संबोधित किया।

Tuesday, 22 November 2016

रामायण के प्रश्न

आज का युग शोध और खोज का है। पुराणों में वर्णित घटनाओं एवं प्रसंगों से हमारी आत्मा में प्रश्न उठना चाहिए और उत्तर भी प्राप्त करना चाहिए। राग-द्वेष सतयुग में भी थे। आचार्यों ने पुराण लिखे, तो उन्हें भी ज्ञात नहीं होगा कि सत्य-असत्य क्या है। उन्होंने जो परोक्ष में देखा-सुना, लिखा। 
                  रावण मंदोदरी से जबरदस्ती विवाह करने जाते हैं। राजा मय के मना करने पर उन्हें चंद्रहासखड्ग से भयभीत करते हुए कहते हैं कि मैं तुम्हारी पुत्री से ही विवाह करूँगा, अन्यथा मरने के लिए तैयार हो जाओ।  मय दानव पुत्री मंदोदरी रावण के पैर पकड़ते हुए कहती है - लंकेश ! मैं आपसे विवाह करने के लिए तैयार हूँ। आप मेरे माता-पिता पर दया कर छोड़ दीजिये तब मंदोदरी की माँ कहती हैं - दुष्ट, अत्याचारी, अधर्मी रावण ! मैं अपनी पुत्री का विवाह तेरे साथ नहीं होने दूंगी, क्योंकि तूने कुबेर से लंका छीनी, ऋषि-मुनियों के खून का तू प्यासा है, स्त्री तेरे नाम से थर-थर कांपती है और तो और तूने अपने ही पिता के साथ विद्रोह किया। मैं तुझे अपने बेटी नहीं ले जाने दूंगी। रावण मंदोदरी के पिता को धक्का देकर मंदोदरी को ले जाते हैं। बेबस मंदोदरी माँ-बाप के सामने रोती हुई जाती है, जैसे कोई बलात्कारी ले जा रहा हो, रावण ने सीता का हरण किया तो क्यों किया ? रावण यज्ञ, ऋषि-मुनि विरोधी था आदि घटनाओं के उत्तर मैं सभी धर्मों के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित घटनाओं को क्रमबद्ध लिखूंगी। घटनाओं की जो यथार्थता सामने आएगी, उनमें मेरा उद्देश्य किसी भी धर्म की महत्ता को कम करना नहीं है।