Tuesday, 20 December 2016

इंद्र एक पद

हिन्दू पुराणों में नागराज, वानरराज, पक्षीराज, दैत्यराज, गरुणराज, लंगूरराज, उल्लुकराज, मत्स्यराज आदि का वर्णन मिलता है। इनका भेष नाग, वानर, लंगूर, उल्लू के समान होता है।वानरराज सिर पर मुकुट धारण किये है तो पूँछ व मुख वानर के समान है। ऐसा ही भेष नाग, पक्षियों में भी देखने को मिलता है। पदमपुराण में कहा गया है कि यह विद्द्याधर रूपवान थे। जिन राजाओं के मुकुट एवं राज्य पताका में वानर का चिन्ह अंकित होता था, वे वानरवंशी कहलाये। जिन राजाओं के मुकुट व राज्यपताका में नाग चिन्ह होता था, वे नागवंशी कहलाये। इसी तरह क्रमशः अन्य पक्षी, दैत्य व मत्स्यवंशी कहलाये गए थे। उदाहरण के लिए खेल के मैदान में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों को कंगारू कहते हैं। रामायण में ही वर्णन मिलता है कि दानव, वानर, गन्धर्व, यम आदि लंकेश्पति के पराक्रम को देखकर भयभीत होकर छुप जाया करते थे। बाली, राम, हनुमान, शनि के बल को  आश्चर्यचकित होकर देखते थे। इनके बल से रावण का विनाश करवाया गया। 

                   पदमपुराण में माहेन्द्र, ईशानेंद्र, नागेन्द्र, सुरेंद्र, सतेंद्र, लान्वेन्द्र, अहमेन्द्र, प्रतेंद्र, गरुणेंद्र, शुकेन्द्र, नरेंद्र, विद्द्युतकुमार, नागकुमार, दैत्यराज,वातकुमार, दिग्कुमार, असुरकुमार आदि सहस्त्र इंद्रों का वर्णन है। इनका अधिपति स्वर्ग का सौधर्म इंद्र होता था। 
                        इन पुराणों के वर्णन से निष्कर्ष यह निकलता है कि इंद्र एक पद है। स्वर्ग का नाम लंका अशनिवेग के समय पड़ा। आज कोई नगर का नाम है तो उस नगर का प्राचीन नाम कुछ और था जो आज हमें ज्ञात नहीं और आगे भी राज्य, नगरों के नाम बदलते रहेंगे। शेष माहेन्द्रलोक, सूर्यलोक, यमलोक आदि विभिन्न इंद्रों के लोक थे। स्वर्ग का अधिपति तीन लोक की शक्ति का केंद्र होता था। यह स्वर्ग (लंका) आर्यखंड में ही थी जिसके तथ्य सभी पुराणों के अनुसार प्रस्तुत किये जायेंगे। रामायण में वर्णित देवराज इंद्र है उनका नाम माहेन्द्र है और उनके भाई सुसेन थे। यह माहेन्द्र अत्यंत क्रूर थे। पुराणों में वर्णित घटनाओं के वर्णन से यथास्थिति संसार के सामने आएगी। रावण ने इनको अभयदान दिया था, उन्होंने ही विश्वासघात किया। 
                        उस समय लंका संसार की शक्ति का केंद्र थी। उसी तरह आज भी प्रत्येक देश की शक्ति केंद्र में होती है और उसका मुखिया प्रधानमंत्री होता है और अन्य मुख्यमंत्री, वित्तमंत्री, गृहमंत्री, विदेशमंत्री आदि और भी मंत्री होते हैं जो सब प्रधानमंत्री को शक्ति का केंद्र मानते हैं और नमन एवं सम्मान करते हैं। आज सभी अस्त्र-शस्त्र एक निश्चित केंद्र की सुरक्षा में होते हैं जो देश की सुरक्षा करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं का विनाश करते हैं। इनके उपयोग के नियम होते हैं। यह तो देश का उदाहरण है मुझे विश्वशक्ति का उदाहरण देना चाहिए, जिनके नियम हैं कि एक देश दूसरे देश पर आक्रमण न करे। विश्व शक्ति के और भी नियम है। यह उदाहरण लंका की शक्ति जानने के लिए दिए हैं जो लंका की दिव्यता से बहुत कम है। 

Tuesday, 13 December 2016

दशानंद को लंका प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना

एक बार कैकसी अपने पुत्रों के साथ छत पर बैठी हुई थी कि तभी पुष्पांतक विमान में बड़े ठाट से चतुरङ्ग सेना सहित अपनी बहन के पुत्र वैश्रवण को जाते हुए देखा। दशानंद और भानुकर्ण के मुख पर पीड़ा के भाव देखकर कैकसी के आँखों में आंसू आ गए। विभीषण को कुबेर, दानव और नागों द्धारा सदैव चुप रहने का आदेश प्राप्त था। योजना के अनुसार विभीषण बोले - माता ! तेरी आँखों में आंसू क्यों है ? क्या किसी दुष्ट ने तुझे कोई कष्ट दिया है। माता बोली - पुत्र ! यह कुबेर तुम्हारा सौतेला भाई है। इसने मेरी बहन के पुत्र वैश्रवण को लंका में पांचवा लोकपाल बनाकर लंका में शासक नियुक्त किया है। कुबेर के सहयोग से इसने इंद्र के समान वैभव प्राप्त कर लिया है और अब यह मेरे पुत्रों को नीचा दिखता रहता है। विभीषण बोले - माता ! इनके लोकपाल बन जाने से क्या होता है ? मैं कुछ ही दिनों में इनका घमंड दूर करूँगा। अधिक क्या कहूँ तू शीघ्र ही इन शत्रुओं का अंत देखेगी। इतने में दैत्यराज सुमाली आ गये और आँखों में आंसू भरकर बोले - पुत्रों ! लंकानगरी जो कुल परंपरा से तो हमारी है किन्तु अशनिवेग ने दानवों से छीन ली है और उसने वहां निर्घात नाम के दुष्ट विद्द्याधर शासक को नियुक्त कर रखा है। तभी से हमें प्राणों से प्यारी अपनी मातृभूमि छोड़ देनी पड़ी है। यह सब सुमाली और कुबेर की योजना थी, वे दशानंद को उकसा रहे थे। वानर, नाग, दानव या हज़ारों देवगण मिलकर भी राक्षसवंशीय अशनिवेग से लंका को नहीं छीन सकते थे। आवश्यकता थी कि दशानंद अपना पराक्रम दिखाए और वही हुआ जो कुबेर, सुमाली और वैश्रवण ने योजना बनायीं थी। दशानंद बोले - बाबा ! आप दुःख न करें। आपके जितने भी शत्रु हैं, मैं उन सबका अभिमान चूर कर दूंगा तभी मैं स्वयं को आपका वंशज कहूंगा। यह सुनकर दानव कुटुम्बियों ने कहा - तू हमारे कुल का भूषण है, चिरंजीवी हो पुत्र। इस तरह दशानंद को आशीर्वाद दिया। जैसा कि लिखा जा चुका है कि दैत्यराज सुमाली दशानंद के बाबा नहीं नाना थे। जैन पदमपुराण में बाबा बताया गया है। दानवों को लंका कभी नहीं मिली थी। राक्षसों और दानवों में क्रमशः पर्वत और राई के समान अंतर था। सुमाली ने कैकसी को झूठ कहा था कि यह लंका कभी हमारे पूर्वजों की थी अतः कैकसी अपने पुत्रों को आदेश देती है कि पिताश्री की आज्ञा का पालन हो। 

Tuesday, 6 December 2016

बहुरूपिया रत्नश्रवा (विश्रवा)

अपने पुत्रों के प्रति ऋषि-मुनियो के विरोध से परेशान रत्नश्रवा बोले - पुत्रों ! उचित-अनुचित का उत्तरदायित्व राजा का है, तुम इनसे विवाद मत करो। आनंद-भानुकर्ण ने अपने पिता को संतुष्ट करते हुए कहा - जैसी आपकी आज्ञा, पिताश्री। प्रसन्नचित्त रत्नश्रवा ऋषि-मुनियों के पास जाकर कहते हैं - मेरे पुत्र अब तुम्हे परेशान नहीं करेंगे। अब तक जो कुछ हुआ, दोनों पक्ष भूल जाएं और मेरे पुत्रों पर स्नेह बनाये रखें। कुबेर की छल-कपटी टोली ने रत्नश्रवा को बंदी बना लिया और बहुरूपिया रत्नश्रवा लंका आने लगा जो सदैव दोनों पुत्रों और कैकसी पर झुंझलाता रहता और फिर ऋषि-मुनियों के पास लौट जाता। 
                कैकसी विनती करके बोली - स्वामी ! अब हमारे चौथी संतान होने वाली है, आप इन अबोध संतानों को छोड़कर क्यों जाते हैं ? बहुरूपिया रत्नश्रवा बोले - तुम्हारे इन उदंडी बालकों के कारण मुझे उन ऋषि-मुनियों की शरण में जाना पड़ता है, मैं न जाता तो कुछ अनर्थ भी हो सकता था। अपने पिता की बातों को सुनकर दशानंद क्रोधित होकर बोले - मैं ऐसे पिता को नहीं मानता जो अपनी पत्नी और संतानों के प्रति स्नेह नहीं रखते। कर्तव्य से बचने के लिए आप उन ऋषियों के समान ही पाखंडी हो। इस तरह पुत्र का पिता से विद्रोह देखकर कुबेर,दानव, नाग अत्यंत प्रसन्न होते थे। बहुरूपिया रत्नश्रवा गर्भवती कैकसी के पास आते और कैकसी को निद्रा से ग्रसित करने के लिए कभी-कभी निद्रा विष दे दिया करते थे। कैकसी कहती है - स्वामी ! जब से मैं गर्भवती हुई हूँ मुझे निद्रा अधिक आती है। बहुरूपिया रत्नश्रवा बोले - प्रिये ! तुम्हारे गर्भ से भानुकर्ण जैसा निद्रा वाला पुत्र हुआ है उसका प्रभाव अभी भी तुम्हारे गर्भ पर है परंतु इस समय सोने से तुम्हे लाभ ही होगा। भोली-भाली कैकसी निद्रा के प्रभाव में यह न समझ पायी कि यह मेरे पति नहीं हैं। कैकसी ने चौथी संतान के रूप में पुत्र को जन्म दिया जो दोनों पुत्रों से अधिक अदभुत एवं अतिशयकारी था। बहुरूपिया रत्नश्रवा ने कैकसी के पुत्र का अपहरण कर ऋषि-मुनियों के आश्रम में पलने के लिए दे दिया और कुबेर का पुत्र कैकसी के पास डाल दिया। कैकसी अधिक निद्रा के कारण यह प्रपंच न समझ सकी। वह तो प्रसन्न थी कि उसके स्वामी ऐसे समय में उसके साथ है। अपने माता-पिता को प्रसन्नचित्त देखकर दशानंद भी प्रसन्न हुए कि अब उनके पिता माँ और नवजात पुत्र को प्रेम कर रहे हैं। कार्य पूर्ण हो जाने पर बहुरूपिया रत्नश्रवा कैकसी के दोनों पुत्रों को उकसाने लगे ताकि दशानंद उनसे विवाद करे और सभी को ज्ञात हो जाये कि पुत्र पिता के साथ भी असभ्य है। पिता के व्यवहार से परेशान दशानंद ने कहा - पिताश्री ! आप उन्हीं ऋषि-मुनियों के साथ रहें, मैं अपनी माता और भाई-बहनों को आपकी कमी अनुभव नहीं होने दूंगा। रत्नश्रवा के नाम की यथार्थता : रत्न = जिनका रत्न जैसा वर्ण, श्रा = तत्वों में श्रद्धा करने वाला, व = विवेकवान
ऋषि-मुनियों से भी अधिक बहुरूपिया रत्नश्रवा कैकसी, दशानंद, भानुकर्ण, चन्द्रनखा का अपमान करते थे। एक बार बहुरूपिया रत्नश्रवा बोले - ऋषि-मुनियों ने तुम्हारा नाम दशानंद से दशानन रखा, वह उचित ही है। तुम्हारे जैसा अभिमानी पुत्र किसी माता-पिता के जन्म न ले तब क्रोधित होकर दशानंद बोले - आप भी रत्नश्रवा नहीं विश्रवा हो। अपने नाम के विपरीत आपकी आत्मा में केवल विष भरा हुआ है। तुम्हारे जैसा पति और पिता ईश्वर किसी को न दे। पिता-पुत्र के विवादों से कैकसी अत्यंत दुखी होती पर वह सदैव अपने पुत्रों का पक्ष लेती थी। वह जानती थी कि मेरे पुत्र सत्य के मार्ग पर चलने वाले हैं। 

Friday, 2 December 2016

इच्छित रूप धारण करने की विद्द्याएँ

दानव, वानर, नाग देव-देवियों को अन्य स्त्री-पुरुष का रूप धारण करने की विद्द्या सिद्ध थी। नाग देव-देवियों के पास किसी को निद्रा विष देने की भी विद्द्याएँ थीं। शेषनाग अवतार लक्ष्मण की निद्रा उर्मिला को दे दी गयी थी। कालनेमि, मायावी ने लंकेशपति का रूप धारण करके बाली, हनुमान, राम एवं तीन लोक को भ्रमित किया। मारीच ने जामवंत, केसरी, अंजना का रूप धारण करके बाली और हनुमान को भ्रमित किया। स्वर्ण हिरण बनकर राम को भ्रमित किया। मंजरिका ने अंजनप्रदेश में आकर अंजना का रूप धारण किया। नाग कन्याओं ने लंकेशपति की पटरानियों का रूप धारण करके लंकेश को जो आघात पहुँचाया उससे संसार आज परिचित नहीं है। यह तो सब जानते हैं कि किसी का रूप धारण करना अर्थात छल। रूप बदलने की घटना और प्रसंग के कारण स्पष्ट हो जाने पर यथार्थता से परिचित होने पर संसार को निश्चित ही सुख की अनुभूति होगी। 
             सभी प्राचीन पुराणों में लिखा है कि रावण अत्यंत बलशाली थे। चौसठ रिद्धि-सिद्धियाँ थीं, असंख्यात दिव्यास्त्र थे, वानर, दानव, मानव, नाग उनको नहीं मार सकते थे। कैकसी के दूसरा पुत्र अतिशयकारी एवं अदभुत हुआ। जन्म होते ही बालक का प्रकाश संपूर्ण लंका में फ़ैल गया। जन्म से कवच-कुंडल होने के कारण रत्नश्रवा-कैकसी अपने पुत्र को भानुप्रकाश एवं भानुकर्ण नाम से संबोधित करते थे। कुबेर जानते थे कि दशानंद संकट में होंगे तो दूसरा पुत्र रक्षा करने मेँ समर्थ है। अतः नागों ने अपनी विद्या से बालक को जन्म से ही निद्रा की बीमारी से ग्रस्त कर दिया इसलिए उनका नाम कुम्भकर्ण पड़ा। किन्ही अज्ञानी पुरुषों का कहना है कि कुम्भकर्ण छः माह तक बराबर सोता रहता था और जब निद्रा से उठता तो भूख से पीड़ित होकर मोठे ताजे पूरे हाथी को एक ही बार में निगल जाता था।  सत्य यह है कि भानुकर्ण का आहार बहुत पवित्र था। वे मुनियों आहार देने के पश्चात् ही भोजन करते थे और उनका चित्त सदा धर्म-ध्यान में ही लगा रहता था। 
                  कैकसी के अति रूपवान पुत्री हुई जिसका चंद्रमा के समान वर्ण एवं मुख था। उसके रूप की उपमा चन्द्रमा से की जाती थी।  कैकसी ने अपनी पुत्री का नाम चन्द्रनखा रखा। कैकसी की संतानों का दशानंद से दशानन (रावण), भानुकरण से कुम्भकर्ण, चन्द्रनखा से सुपर्णणखा नाम शत्रुओं की देन थी। चौथे पुत्र विभीषण की भिन्नता का कारण अवश्य प्रकाश में आएगा, जो रूप, बल, काया में दशानंद और भानुकर्ण के आगे कुछ भी नहीं थे। यथार्थता जानने के लिए शोध आवश्यक है। "घर का भेदी लंका ढहाए इस" इस कथन की पुष्टि भी स्पष्ट होना है।