Tuesday, 6 December 2016

बहुरूपिया रत्नश्रवा (विश्रवा)

अपने पुत्रों के प्रति ऋषि-मुनियो के विरोध से परेशान रत्नश्रवा बोले - पुत्रों ! उचित-अनुचित का उत्तरदायित्व राजा का है, तुम इनसे विवाद मत करो। आनंद-भानुकर्ण ने अपने पिता को संतुष्ट करते हुए कहा - जैसी आपकी आज्ञा, पिताश्री। प्रसन्नचित्त रत्नश्रवा ऋषि-मुनियों के पास जाकर कहते हैं - मेरे पुत्र अब तुम्हे परेशान नहीं करेंगे। अब तक जो कुछ हुआ, दोनों पक्ष भूल जाएं और मेरे पुत्रों पर स्नेह बनाये रखें। कुबेर की छल-कपटी टोली ने रत्नश्रवा को बंदी बना लिया और बहुरूपिया रत्नश्रवा लंका आने लगा जो सदैव दोनों पुत्रों और कैकसी पर झुंझलाता रहता और फिर ऋषि-मुनियों के पास लौट जाता। 
                कैकसी विनती करके बोली - स्वामी ! अब हमारे चौथी संतान होने वाली है, आप इन अबोध संतानों को छोड़कर क्यों जाते हैं ? बहुरूपिया रत्नश्रवा बोले - तुम्हारे इन उदंडी बालकों के कारण मुझे उन ऋषि-मुनियों की शरण में जाना पड़ता है, मैं न जाता तो कुछ अनर्थ भी हो सकता था। अपने पिता की बातों को सुनकर दशानंद क्रोधित होकर बोले - मैं ऐसे पिता को नहीं मानता जो अपनी पत्नी और संतानों के प्रति स्नेह नहीं रखते। कर्तव्य से बचने के लिए आप उन ऋषियों के समान ही पाखंडी हो। इस तरह पुत्र का पिता से विद्रोह देखकर कुबेर,दानव, नाग अत्यंत प्रसन्न होते थे। बहुरूपिया रत्नश्रवा गर्भवती कैकसी के पास आते और कैकसी को निद्रा से ग्रसित करने के लिए कभी-कभी निद्रा विष दे दिया करते थे। कैकसी कहती है - स्वामी ! जब से मैं गर्भवती हुई हूँ मुझे निद्रा अधिक आती है। बहुरूपिया रत्नश्रवा बोले - प्रिये ! तुम्हारे गर्भ से भानुकर्ण जैसा निद्रा वाला पुत्र हुआ है उसका प्रभाव अभी भी तुम्हारे गर्भ पर है परंतु इस समय सोने से तुम्हे लाभ ही होगा। भोली-भाली कैकसी निद्रा के प्रभाव में यह न समझ पायी कि यह मेरे पति नहीं हैं। कैकसी ने चौथी संतान के रूप में पुत्र को जन्म दिया जो दोनों पुत्रों से अधिक अदभुत एवं अतिशयकारी था। बहुरूपिया रत्नश्रवा ने कैकसी के पुत्र का अपहरण कर ऋषि-मुनियों के आश्रम में पलने के लिए दे दिया और कुबेर का पुत्र कैकसी के पास डाल दिया। कैकसी अधिक निद्रा के कारण यह प्रपंच न समझ सकी। वह तो प्रसन्न थी कि उसके स्वामी ऐसे समय में उसके साथ है। अपने माता-पिता को प्रसन्नचित्त देखकर दशानंद भी प्रसन्न हुए कि अब उनके पिता माँ और नवजात पुत्र को प्रेम कर रहे हैं। कार्य पूर्ण हो जाने पर बहुरूपिया रत्नश्रवा कैकसी के दोनों पुत्रों को उकसाने लगे ताकि दशानंद उनसे विवाद करे और सभी को ज्ञात हो जाये कि पुत्र पिता के साथ भी असभ्य है। पिता के व्यवहार से परेशान दशानंद ने कहा - पिताश्री ! आप उन्हीं ऋषि-मुनियों के साथ रहें, मैं अपनी माता और भाई-बहनों को आपकी कमी अनुभव नहीं होने दूंगा। रत्नश्रवा के नाम की यथार्थता : रत्न = जिनका रत्न जैसा वर्ण, श्रा = तत्वों में श्रद्धा करने वाला, व = विवेकवान
ऋषि-मुनियों से भी अधिक बहुरूपिया रत्नश्रवा कैकसी, दशानंद, भानुकर्ण, चन्द्रनखा का अपमान करते थे। एक बार बहुरूपिया रत्नश्रवा बोले - ऋषि-मुनियों ने तुम्हारा नाम दशानंद से दशानन रखा, वह उचित ही है। तुम्हारे जैसा अभिमानी पुत्र किसी माता-पिता के जन्म न ले तब क्रोधित होकर दशानंद बोले - आप भी रत्नश्रवा नहीं विश्रवा हो। अपने नाम के विपरीत आपकी आत्मा में केवल विष भरा हुआ है। तुम्हारे जैसा पति और पिता ईश्वर किसी को न दे। पिता-पुत्र के विवादों से कैकसी अत्यंत दुखी होती पर वह सदैव अपने पुत्रों का पक्ष लेती थी। वह जानती थी कि मेरे पुत्र सत्य के मार्ग पर चलने वाले हैं। 

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